Wednesday 16 November 2011

प्यास


यह कैसा निर्जन स्थान
चारो ओर सून-सान
जेठ की चिलचिलाती धूप
देखो इसके कितने रूप
कैसी गर्मी पड़ती है
कोई चीज न तरती है

मै अकेला अपनी आखोंसे
इधर-उधर देखता फ़िरता हू
पर कोई चीज नजर नही आता
चारो तरफ़ रेत ही रेत
मानो रेतो की हो खेत
जिसमे चमकते बालुओ के कण
जैसे कोई शीशे कि खान
पर इस पर मै मेहरबान
जिधर देखो उधर सून-सान
मै थका उदास
बहुत तेज लगी प्यास
लगता है जान जाएगी आज
मै त्याग जिवन की आश
तभी सहसा दूर बहुत दूर
एक पनिहारी घड़ा लिए
दिखाई दिया ,मैने सोच लिया
अब जिवन बचेगी,नई जिन्दगी मिलेगी
जैसे-जैसे वह नजदीक आता गया
मै अत्यधिक खुश होता गया
मेरा मन नाचे जैसे मोर
मै खुश से हुआ सराबोर

फ़िर यह क्या
मै क्या देखा
जैसे कोई हाथ की रेखा
घड़ा उल्टा जैसे सब कुछ लुटा

पनिहारी मुस्कराया
मेरी मूर्खता पर हसा
यह क्या हो गया
मै कैसे फ़ंसा
अब जान गया
पहचान गया
कि मौत निश्चित सूनिश्चित
अत्यधिक पीड़ा से कराहता
हूंकारता
कोई मुझे पानी पिला दे
मेरी जिन्दगी को बचा ले
मै तड़पता जल बिन मछली की तरह
मै मर गया कब का
मुझे पता नही मेरी जिन्दगी का
कब बुझी रोशनी मेरे दीपक का
काश ! मै किसी के काम आता
कोई उपकार करता और प्यार पाता

मोहन श्रीवास्तव
दिनांक-३०/३/१९९१,एन टी. पी सी दादरी गाजियाबाद(उ.प्र.)

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