यह कैसा खण्डहर,
टूटा-फ़ूटा उजड़ा भवन
जाने कैसे कैसे कब हो गया
यह कभी रहा होगा अच्छा सा महल,
मै पूछता फ़िरता
कोई मेरी बातो को न सुनता
कि यह कैसे हो गया खण्डहर
टूटा-फ़ूटा उजड़ा महल,
आखिर मे एक जीर्ण-शीर्ण
चिथड़ो मे लिपटी जिन्दा शरीर
वह वॄद्धा थी,दुखियारी थी
वह भारी विपदो की मारी थी
मैने प्रश्न वही दोहराया
पल भर उसकी आखो मे आसू आया
देखा उसने मुझे गौर से
मै सहम गया कुछ और से,
पर वह मुस्कराई,ताली बजाई,
मुझे प्यार से पास बुलाई,बैठाई,
मत पूछो इसका हाल
यह कैसे हुआ बेहाल
मै हू इस खण्डहर की मालकिन
मै बच गई अभागिन
वर्षो पहले की बात मेरे दो बच्चे थे साथ
दोनो होनहार,करते थे मुझको अमित प्यार
मै खुश थी उनके साथ
मै सपने सजाए विविध प्रकार
अचानक एक घटना घटी
जिसकी मुझे अभी भी याद
वह आंधी नही तूफ़ान
वह कब्र नही मशान
मेरे नन्हे-मुन्ने दोनो बच्चे
वे लगते थे कितने अच्छे
उस दिन हो रही थी बरसात
आज भी याद है वह काली रात,
मै सोई थी उनके पास
लगाई थी सुबह होने की आश
यह क्या यह गजब हो गया
मेरे प्यारों को क्या हो गया
मै देखी दोनो निःश्वाश
त्यागे दोनो जिवन की आश
एक सर्प ने उनको काटा
ये मुझसे कहा नही जाता
मै नि सहाय-असहाय
मै चिल्लाई कोई आ जाय
सब आए,मुह लटकाए
एक-दूसरे को देखते जाए
मेरे दोनो चिराग
बुझे दोनो जैसे कोई आग
मुझको काट लेता साप
मै बच गई यह कैसा पाप,
मै कैसी अभागिन,
इस खण्डहर की माल्किन
अब समझ गए होगे इसका हाल
अब ना कराओ इसका ख्याल,
मै इसी वॄक्ष के नीचे
वर्षो से पड़ी पिछे
ला दो मेरे कोई दोनो लाल
यह खण्डहर हो जाए खुशहाल,
यह उजड़ा-उजड़ा सा नगर
कभी बन जाए अच्छा शहर
मै चल दिया सुन वॄद्धा से हाल
यह कैसा किया ईश्वर ने सवाल
उस बेचारी सिधी-सादी
अबला से किया क्रूर मजाक
उसके जीवन के दोनो दीप बुझ गए
जैसे कोई खलिहानो की आग
मै चलता रहा अपने शहर की ओर
सोचता-फ़िरता जाए कहा किस ओर...
मोहन श्रीवास्तव
दिनांक-३०/०३/१९९१,शाम,०५.१० बजे,एन टी.पी सी, दादरी गजियाबाद
(उ.प्र.)
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