ईन्षान की चाहत की, कोई सीमा नही होती!
एक पाएगा तो दुसरे पे, आश है उसकी!!
कश्ती डुबती हो और, भवंर मे पड़े हों जब!
कोई सहारा चाहिए हमे,खतरे मे पड़े हों जब!!
थिरकन हो जब भी पावों मे हिम्मत न हारिए!
बादलों की तरह गगन मे, अपने को उड़ाइए!!
सुरज तो खुद ही सुरज है,उसे किरणों की आश नही!
किरनें है दास उसकी,वह किरणों का दास नही!!
दिन-रात,सुबह-शाम,उगना और डूबना!
चलता ही रहेगा,जिने-मरने का सिलसिला!!
मोहन श्रीवास्तव
१६/६/१९९९,वुद्धवार,सुबह ६ बजे,
चन्द्रपुर महा.
चाह नही मुझे ऐसी भेंट का, जब राहों में मैं फेंका जाऊं । मैं तो अपनी डाली में मस्त हूं, जहां हंसते हंसते मैं मर जाऊं ॥ ईनाम पुरष्कारों की नही चाह, जब नहीं मिले तो दुःख पाऊं । मैं तो अपनी डाली में मस्त हूं, जहां हंसते हंसते मैं मर जाऊं ॥ चाह मुझे उन अच्छे ईंषानों का, जिनके दिल मैं बस जाऊं । चाह मुझे उन सत्य पथिक का, जिनके चरणों में मैं चढ़ जाऊं ॥ चाह मुझे उन हवाओं का, जब मैं खुशबू उनके संग बिखराऊ । चाह मुझे भगवान के चरणों का, जहां हसते हसते मैं चढ़ जाऊं ॥ मोहन श्रीवास्तव (कवि)
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