Tuesday 13 March 2012

सूरत तुम्हारी मेरे

तेरे तन-वदन से खुशुबू,
फ़ूलों की रही है !
सुरत तुम्हारी मेरे ,
दिल मे समा रही है !!

नयनों के बाण तेरे,
दिल मे जो लग रही है !
सोई हुई पिपासा,
मानो ये जग रही है !!

ठंडी हवाएं ये जो,
शोले बरस रहे हैं !
नयना ये मेरे दिलकश,
कब से तरस रहे हैं !!

अदाएं तुम्हारी मेरे,
मन को है भा रही है !
तुमसे मिलन की आशा,
बढ़ती ही जा रही है !!

मेरी आगोश मे तुम आवो,
क्युं नखरे दिखा रही हो !
रह-रह के हमपे क्युं तुम,
 बिजली गिरा रही हो !!

मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
१७//१९९९,सुबह, बजे,

चन्द्रपुर महा.

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