गूंज रहा था चीत्कार, दिशावों में,
जहां काल ने, गाल फैलाए थे ।
उस प्रलयंकारी, दैवी उफान ने,
अपने लहरों का, कफन पहनाए थे ॥
वह उफान नही, शैतान था वह,
जहां मौत ने, नंगा नाच किया ।
उन गरीब, बेकसुरों का,
सब कुछ तो है, बर्बाद किया ॥
लोग एक दुसरे को, ढू़ढ़ रहे थे,
जिनका बच पाना, मुश्किल था ।
संयोग से जो, बच गये थे वहां पे,
उनका हाल सुनाना, मुश्किल था ॥
प्रत्यक्ष दर्शियों की, माने तो,
वहां हुआ बड़ा तबाही है ।
लाशों के ढेर, छितरे-बितरे,
और हुआ बड़ा बर्बादी है ॥
कुदरत का तांण्डव, पल भर का था,
जहां कई हजार, जानें हैं गई ।
जिनके खाने -पीने की आश,
और कितनों की, आशियानें भी ढही ॥
लहरों मे कितने, समा गये,
और कितने, समाते जाते थे ।
कितनों-कितनों के, बह गये मकान,
व कितने, बहते जाते थे ॥
खुद को हम आगे, कितना बढ़ा लें ,
पर कुदरत के आगे, कमजोर हैं हम ।
आए हैं तो, जाना ही पड़ेगा,
किसी विग्यान से नही, बच सकते हैं हम ॥
बैग्यानिक चमत्कार, सारे धरे रह गये,
जहां प्रकृति ने, प्रहार है कर डाला ।
उन मासूमों के, सुनहरे सपनों को,
पल भर मे ध्वस्त, है कर डाला ॥
विकास के नाम पर ,कुदरत की हत्या,
इससे हम अपने, विनाश को बुलाते हैं ।
कहीं सुखा व कहीं बाढ़,
व कहीं ऐसे ही, बादल फट जाते हैं ॥
गर्व है हमे हमारी, अपनी सेना पर,
जो हर मुश्किलों से, हमें छुड़ाते हैं ।
हर संकट की, घड़ी में वे,
हमारे प्राणों को, बचाते हैं ॥
गूंज रहा था चीत्कार, दिशावों में,
जहां काल ने, गाल फैलाए थे ।
उस प्रलयंकारी, दैवी उफान ने,
अपने लहरों का कफन, पहनाए थे ॥
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
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21-06-2013,11.50 am.
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