रो रही हमारी भारत माता,
अपने बेटों की, कुर्बानी पर ।
क्रोध से ये पीस, रही है दाँत,
हमारे दुश्मनों की, नादानी पर ॥
अब बहुत सह लिया है हमने,
अब और अधिक, बर्दास्त नही ।
वे मार रहे हमारे, बेटों को,
और हम कहते, कोई बात नही ॥
ये दिल है माँ का, कोई पत्थर तो नही,
जो हर जख्मों को, सहता जाए ।
अपने बेटों की, आहुति पर,
ये चैन से तो, न रह पाए ॥
हम मित्रता, चाहते हैं उनसे,
पर दुश्मनी तो, उनकी आदत है ।
वे हसते रहते हैं, हम पर,
कि देखो कैसा, ये भारत है ॥
हर एक की कोई, सीमा होती है,
और वे सीमा को, अपने लांघ रहे ।
वहां की निकम्मी सरकारें,
हमसे युद्ध हो चाह रहे ॥
पर हम नहीं चाहते, युद्ध हो उनसे,
वे पहले से तो, हैं मरे हुए ।
वे गाल बजाते हैं, रह-रह कर,
पर अन्दर से, हमसे डरे हुए ॥
जब हम नहीं चाहते, युद्ध हो उनसे,
तो हम उनसे सारे, रिश्ते बंद करें ।
वे मित्र हमारे, कभी हो सकते ही नही,
फिर उनसे हम क्युं, कोई सम्बन्ध करें ॥
वे मित्र हमारे, कभी हो सकते ही नही,
फिर उनसे हम क्युं, कोई सम्बन्ध करें....
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
08-08-2013,thursday,2am,
pune.m.h.
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