Sunday 29 September 2013

गजल (कभी जी भर के मुझे वे देखे ही नही)

कभी जी भर के मुझे, वे देखे ही नही
वे तो रहते हैं मेरे पास,मगर दिल तो कहीं
कभी जी भर के मुझे.......

मै तो सजती हूं,संवरती हूं, उनके ही लिये
बड़ी अरमान सजाई हूं, अपने दिल में
कभी जी भर के मुझे.......

मैने जुल्फों को संवारा है,बड़े ही दिल से
मै तो लाली भी, लगाती हूं होठों पे
कभी जी भर के मुझे.......

मैं तो माथे की ये बेदी, को लगाती दिल से
मेरे कानों के ये झुमके,तो हिलते रहते
कभी जी भर के मुझे.......

मैं तो माथे की बिन्दी, को बदलती रहती
मैं तो आखों मे काजल भी,लगाया करती
कभी जी भर के मुझे.......

मेरी नथिया की चमक, दूर से ही दिखती है
दोनों भौहों की ये धारी, भी खिलती रहती
कभी जी भर के मुझे......

मै तो मेरे हार गले मे, पहनती भी हूं
मैं तो सोलह श्रृंगार से, सजती भी हूं
कभी जी भर के मुझे...........

मेरे हाथों में बजते हैं, चूड़ी खन-खन
मेरे पावों के तो पायल ,बजते छन-छन
कभी जी भर के मुझे.......

मैं तो साड़ी भी बदलती हूं,उनके ही लिये
मैं तो तश्वीर बसाई है,उनकी दिल में
कभी जी भर के मुझे........

मुझे लगता है कमी,कुछ तो है मेरे मे
पर किसी बात को,वे कभी कहते ही नहीं

कभी जी भर के मुझे, वे देखे ही नही
वे तो रहते हैं मेरे पास,मगर दिल तो कहीं

मोहन श्रीवास्तव(कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
07-09-2013,saturday,2pm,(748),
pune,maharashtra



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